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म॒हीर॑स्य॒ प्रणी॑तयः पू॒र्वीरु॒त प्रश॑स्तयः । विश्वा॒ वसू॑नि दा॒शुषे॒ व्या॑नशुः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mahīr asya praṇītayaḥ pūrvīr uta praśastayaḥ | viśvā vasūni dāśuṣe vy ānaśuḥ ||

पद पाठ

म॒हीः । अ॒स्य॒ । प्रऽनी॑तयः । पू॒र्वीः । उ॒त । प्रऽश॑स्तयः । विश्वा॑ । वसू॑नि । दा॒शुषे॑ । वि । आ॒न॒शुः॒ ॥ ८.१२.२१

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:12» मन्त्र:21 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:5» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:21


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शिव शंकर शर्मा

उसकी कृपा दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) इस परमात्मा के (प्रणीतयः) प्रणयन अर्थात् सृष्टिसम्बन्धी विरचन (महीः) महान् और परमपूज्य हैं और (प्रशस्तयः) इसकी प्रशंसा भी (पूर्वीः) पूर्ण और बहुत हैं इसके (विश्वा) सम्पूर्ण (वसूनि) धन (दाशुषे) दानी पुरुष के लिये (व्यानशुः) प्राप्त होते हैं ॥२१॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यों ! वह सब प्रकार से पूर्ण है। जो कोई उसकी आज्ञा के अनुसार चलता है, उसको वह सब देता है ॥२१॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) इस परमात्मा की (प्रणीतयः) निर्माण शक्तियें (उत) और (प्रशस्तयः) वैदिक स्तुतियें (महीः) महान् और (पूर्वीः) अनादि हैं। ये दोनों (दाशुषे) उपासकों के लिये (विश्वा, वसूनि) सम्पूर्ण पदार्थों को उत्पन्न करती हुई (व्यानशुः) व्याप्त हो रही हैं ॥२१॥
भावार्थभाषाः - भाव यह है कि उस पूर्ण परमात्मा की निर्माणशक्ति=प्रत्येक कार्य्य की यथावत् रचनारूप शक्ति और वैदिक स्तुतियें अर्थात् वेदों में वर्णित परमात्मा की सुप्रबन्धादि शक्तियें महान् और अनादि हैं, जिनसे संसार में सब कार्य्य यथावत् हो रहे हैं ॥२१॥
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शिव शंकर शर्मा

तत्कृपां दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - अस्य=इन्द्रस्य। प्रणीतयः=प्रणयनानि=संसारसम्बन्धिन्यो विरचनाः। महीः=महत्यो वर्त्तन्ते। उतापि च। अस्य प्रशस्तयः=प्रशंसा अपि। पूर्वीः=वह्वो वर्त्तन्ते। दाशुषे=पराननुग्रहीतुं स्वकीयं धनं दत्तवते जनाय। विश्वा=सर्वाणि। वसूनि=धनानि। व्यानशुः=प्राप्नुवन्ति ॥२१॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) अस्य परमात्मनः (प्रणीतयः) निर्माणशक्त्यः (महीः) महत्यः (पूर्वीः) पुरातन्यः (उत) अथ (प्रशस्तयः) स्तुतयः वेदरूपेण तथैव ताश्च (दाशुषे) उपासकाय (विश्वा, वसूनि) समस्तानि रत्नानि धारयन्त्यः (व्यानशुः) व्याप्ताः ॥२१॥